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गीता प्रेस, गोरखपुर >> नारी धर्म

नारी धर्म

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :44
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 956
आईएसबीएन :81-293-0534-8

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प्रस्तुत है नारी धर्म.....

Nari Dharam a hindi book by Jaidayal Goyandaka - नारी धर्म - जयदयाल गोयन्दका

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

स्त्री-धर्म के विषय में न तो मुझे विशेष ज्ञान है और न मैं अधिकारी हूँ तथापि साधारण बुद्धि के अनुसार कुछ लिखने का प्रयास कर रहा हूँ।


स्वतन्त्रता के लिये स्त्रियों की अयोग्यता।

स्त्री-जाति लिये स्वतन्त्र न होना ही सब प्रकार से मंगलदायक है। पूर्व में होनेवाले ऋषि-महात्माओं ने स्त्रियोंके लिये पुरुषों के अधीन रहने की आज्ञा दी है, वह उनके लिये बहुत ही हितकर जान पड़ती है। ऋषिगण त्रिकालज्ञ और और दूरदर्शी थे। उनका अनुभव बहुत सराहनीय था। जो लोग उनके रहस्यो नहीं जानते हैं, वे उनपर दोषारोपण करते हैं और कहते हैं। कि ऋषियों ने जो स्त्रियों की स्वतन्त्रता का अपरहण किया, यह उनके साथ अत्याचार किया गया; ऐसा कहना उनकी भूल है; परंतु यह विषय विचारणीय है। स्त्रियों में काम, क्रोध, ओछापन, चपलता, अशौच, दयाहीनता आदि विशेष अवगुण होने के कारण वे स्वतन्त्रता के योग्य नहीं हैं, तुलसीदास जी ने भी स्वाभाविक कितने ही दोष बतलाये हैं-


नारि सुभाउ सत्य सब कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीं।।
साहस अनृत चपलता माया। भय अबिबेक असौच अदाया।

अतएव उनके स्वतन्त्र हो जाने से- अत्याचार, अनाचार, व्यभिचार आदि दोषों की वृद्धि होकर देश, जाति, समाज को बहुत ही हानि पहुँच सकती है। इन्हीं सब बातों को सोचकर मनु आदि महर्षियोंने कहा है।

बालया वा युवत्या वा वृद्धया वापि योषिता।
न स्वातन्त्र्येण कर्तव्यं किञ्चित् कार्य़ं गृहेव्षपि।।
बाल्ये पितुर्वशे तिष्ठेत् पाणिग्राहस्य यौवने।
पुत्राणां भर्तरि प्रेते न भजेत् स्त्री स्वतन्त्रताम्।।
(मनु० 5। 147- 148)

‘बालिका, युवती वा वृद्धा स्त्री को भी (स्वतन्त्रतासे  बाहरमें नहीं फिरना चाहिये और) घऱों में भी कोई कार्य स्वतन्त्र होकर नहीं करना चाहिये। बाल्यावस्थामें स्त्री पिताके वशमें, यौवनावस्था में पति के अधीन और पति के मर जानेपर पुत्रों के अधीन रहे, किंतु स्वतन्त्र कभी न रहे।’

‘यह बात प्रत्यक्ष भी देखने में आती है कि जो स्त्रियाँ स्वत्रन्त्र होकर रहती हैं, वे प्रायः नष्ट-भ्रष्ट हो जाती हैं। विद्या, बुद्धि एवं शिक्षा के अभाव के कारण भी स्त्री स्वतन्त्रता के योग्य नहीं है।’

वर्तमान काल में स्त्री शिक्षा की- कठिनाई

स्त्री-जाति में विद्या एवं शिक्षाका भी बहुत ही अभाव है। इनके लिये शिक्षाका मार्ग भी प्रायः बंद-सा हो रहा है और न अति शीघ्र कोई सरल राह ही नजर आती है। कन्याओं एवं स्त्रियोंको यदि पुरुषों द्वारा शिक्षा दिलायी जाय तो प्रथम तो पढ़े-लिखे मिलने पर भी अच्छी शिक्षा देखनेवाले पुरुष नहीं मिलते। उनके स्वयं सदाचारी न होनेके कारण उनकी शिक्षाका अच्छा असर नहीं पड़ता, वरं दुराचार की वृद्धिकी ही शंका रहती है। शंका ही नहीं, प्रायः ऐसा देखने में भी आ जाता है कि जहाँ कन्याओं और स्त्रियों को पुरुष शिक्षा देते हैं, वहाँ व्यभिचारादि दोष घट जाते है। जहाँ कहीं स्त्रियों के साथ पुरुषों का सम्बन्ध देखने में आता है, वहाँ प्रायः दूषित वातावरण देखा जाता है। कहीं-कहीं तो उनका भंडाफोड़ हो जाता है और कहीं-कहीं नहीं भी होता। स्कूल, कालेज, पाठशाला, अबलाश्रम, थियेटर, सिनेमा की तो बात ही क्या है। कथा, कीर्तन, देवालय और तीर्थस्थानादि भी वातावरण स्त्री-पुरुषों के मर्यादाहीन सम्बन्ध से दूषित हो जाता है। इसलिये स्त्री-पुरुषों का सम्बन्ध जहाँ तक कम हो, उतना ही हितकर है।

यदि स्त्रियों के द्वारा कन्या एवं स्त्रियों को शिक्षा दिलायी जाय तो प्रथम तो विदुषी, सुशिक्षिता स्त्रियों का प्रायः अभाव-सा ही है। इसपर कोई मिल भी जाय तो सदाचारिणी होना तो अत्यन्त ही कठिन है। शिक्षापद्धतिको कुछ जानने वाली होनेपर भी स्वयं सदाचारिणी न, होनेसे उनका दूसरोंपर अच्छा असर होना सम्भव नहीं आज भारतवर्ष में सैकड़ों कन्या-पाठशालाएँ हैं, परंतु यह कहना बहुत ही कठिन है कि उनमें कोई भी पूर्णतया हमारे सनातन आदर्शके अनुसार संचालित हो रही हैं।

प्राचीन कालकी स्त्री-शिक्षा  

पूर्वकालमें जिस शिक्षापद्धतिसे शिक्षिता होकर बहुत-सी अच्छी सदाचारिणी, विदुषी, सुशिक्षिता स्त्रियाँ हुआ करती थीं, वह शिक्षापद्धति अब प्रायः नष्ट हो गयी है। पहले जमाने में कन्याएँ पिताके घरमें ही माता-पिता-भाई-बहिन आदि अपने घरके ही लोगों द्वारा एवं विवाहके उपरान्त ससुरालमें पति, सासु आदि के द्वारा अच्छी शिक्षा पाया करती थीं। वर्तमान कालकी तरह  कहीं बाहर जाकर नहीं। इसलिये वे सदाचारिणी और सुशिक्षिता हुआ करती थीं। कन्याओंके गुरुकुल, पाठशाला और विश्वविद्यालयका उल्लेख श्रुति-स्मृति, इतिहास-पुराणदिमें कहीं नहीं पाया जाता। लड़कों के साथ लड़कियों के पढ़ने की बात भी कहीं नहीं पायी जाती। उस समय ऊपर कहे अनुसार घरही में शिक्षाका प्रबन्ध किया जाता था या किसी विदुषी स्त्री के पास अपने घरवालों के साथ जाकर भी शिक्षा ग्रहण की जाती थी, जैसे श्रीरामचन्द्र के साथ जाकर सीताजी ने अनसूयाजीसे शिक्षा प्राप्त की थी। उस कालमें बड़ी-बड़ी सुशीला, सुशिक्षिता विदुषियाँ हुई हैं, जिनके चरित्र आज हमारे लिये आदर्श हैं।

हमें भी इस समय स्त्रियों के लिये शिक्षा और विद्या पाने का प्रबन्ध अपने घरोंमें ही करने की कोशिश करनी चाहिये। हर एक भाई को अपने-अपने घरमें धार्मिक पुस्तकों के आधारपर अपने-अपने बाल-बच्चों और स्त्रियों को नियमित रूप से शिक्षा देनी चाहिये।

प्रथम मनुष्यमात्र के सामान्य धर्म एवं स्त्रीमात्र के सामान्य धर्मकी शिक्षा देकर फिर कन्याओं के लिये, विवाहित स्त्रियों के लिये एवं विधवा स्त्रियों के लिये अलग-अलग विशेष धर्मकी शिक्षा देनी चाहिये।

मनुष्य मात्र के कर्तव्य

मनुष्य मात्र के सामान्य धर्म संक्षेपसे निम्नलिखित हैं- स्त्रियों को इनके भी पालन करने की कोशिश करनी चाहिये। महर्षि पतञ्जलिने यम-नियम के  नामसे और मनुने धर्मके नामसे ये बात बतायी हैं।


अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः।

(योगदर्शन 2।30)

यम

किसी प्राणी को किसी प्रकार भी किश्चिन्मात्र कभी कष्ट न देने का नाम अहिंसा हैं।

हितकारक प्रिय शब्दों में न अधिक और न कम अपने मन के अनुभव का जैसा –का –तैसा भाव निष्कपटता पूर्वक प्रकट कर देने का नाम सत्य है।

किसी प्रकार भी किसी की वस्तु को न छीनने और न चुराने का नाम अस्तेय है।

सब प्रकार के मैथुनों का त्याग करके वीर्य की रक्षा करने का नाम ब्रह्मचर्य हैं।
शरीर निर्वाहके अतिरिक्त  भोग्य पदार्थ का कभी संग्रह न करने का नाम अपरिग्रह हैं।
ये पाँच यम हैं, इन्हीं को महाव्रत भी कहते हैं।

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